Friday, April 28, 2017

भूल..

अब तो ईमेल पे हो जाया करती है बातें, हाँथो में कलम पकड़ना कुछ भूल गए
एक अदना कागज़ पे दिल निकाल के रखने वाले, अब दिल्लगी भी भूल गए |

सर्द रात है स्याह से अफ़साने, गली के मोड़ पे लोग अलाव जलना भूल गए
हम गुज़रे ज़रूर फिर उन्हीं रास्तों से, बस आप से नज़रे मिलाना भूल गए |

यूँ मसरूफ हुए उनके किस्सों में, हम अपनी दास्ताँ सुनाना भूल गए
चाहिए था कुछ वक़्त अपने लिए ज़िन्दगी से, बस जीने के बहाने भूल गए |







Wednesday, July 30, 2014

वाक्या - भाग २ - ट्रेन की भुरके वाली लड़की

कामकाज़ के सिलसिले में किसी नए शहर जाना उसकी उसकी जीवनशैली से जुड़ने का सबसे नायब तरीका है स्थानीय परिवहन का उपयोग, सोचा लोकल ट्रैन के माध्यम से एक सिरे से दूसरे तक जाना आसान होगा..

ट्रेन का टिकट हाथ में लिए किस प्लेटफार्म पर जाया जाये की दुविधा, इन्क्वारी पर भीड़, इत्तेफ़ाकन कुछ लोगों से सुना की हमारी गाड़ी पांच नंबर पर है..हम तेज़ रफ़्तार से बढ़े ही थे कि पीछे से किसी ने पुछा "लिंगमपल्ली" की ट्रेन कौन से प्लेटफार्म पे है..पलट कर देखते है तो भुरके से ढकी एक लड़की, आँखें ही दिख रही ठगी उसकी पर आवाज़ का इत्मीनान बता रहा था कि चेहरे पर हलकी सी मुस्कराहट भी होगी भी, शायद एक सहगामी लड़की से उसे सही जानकारी की उम्मीद थी ..हमने दुविधा जाहिर कर दी, भाई हम नए है शहर में..पैर सुना कुछ लोगों को बता करते हुए की पांच नंबर पर आएगी, चलिए वही चल के देखा जाये..और शायद हमारी भावी सहयात्री ने भी यही सुना था ..वह और हम, दो बातूनी से साथ हो लिए, ऐसा नहीं की वह पूरी तरह अनजान थी इस ट्रेन से पर अकेले शायद पहेली दफ़ा सफर था उनका..घड़ी-घड़ी फ़ोन पर शायद अपने परिवार के लोगों को ट्रेन की यथास्थिति से अवगत भी करा रही थी .. मज़ेदार है यह टेक्नोलॉजी पर विस्वाश कि एक रूढ़िवादी घर की लड़की भी भुरका में ही सही अकेले सफर करने की हिम्मत कर सकती है, वाह मोबाइल फ़ोन.. इतना भरोसा तो है कि कुछ भी हुआ पल भर में घरवालों को खबर कर देंगे..

खैर उनका तो यह शहर था पर हम अजनबी होकर अकेले सफर कर रहे हैं इस पर काफ़ी ध्यान था उनका, और गज़ब की मानवीयता की बार - बार हमें बताया हमरे स्टॉप से तीन स्टेशन आगे आगे आपका स्टॉप है ख़ैरियत से उतर जाईयेगा ..

नाम इन मोहतरमा का भी नहीं मालूम हमें लेकिन उनका अपनापन और हमदर्दी बेबाक रही.. फिर एक बार मुस्कुराती ज़िन्दगी से मुलाक़ात हुई ..




वाक्या - भाग १

तो पिछली दफे कब आपकी  मुलाक़ात हुई और कहाँ..मुझे इत्तेफाक से यह तब मिली जब अपनी प्यारी सी मुस्कराहट सजाये हम हैदराबाद में अपनी एक पूर्व सहपाठी से बरसों बाद मिलने का इंतज़ार कर रहे थे, हमारे हाँथो में आलू-टिक्की की वह प्लास्टिक प्लेट आने से पहले, सड़क के किनारे भटकते एक भूखे बच्चे की आस में कि शायद कोई दरियादिल उसे भी चटकारे भरी यह चाट खिला दे..ऐसा नहीं की वह भिखारी था या कोई कामचोर, पर शायद कचरा बेच कर कमाए पैसे से चाट खाने की फिजूलखर्ची, उसके बस से बहार थी..और फिर मेरा और मेरी दोस्त का उसे और उसके एक और सहयोगी को चाट की दो प्लेट खरीद कर देना मनो ऐसा था जैसे उनकी कोई मुराद पूरी हो गयी हो .. नाम नहीं मालूम हमें उन बच्चों का न ही कुछ और, पर एक ही ख्याल है मन में की "क्या ग़रीब का भी कोई धर्म होता है ? " शायद नहीं उसका धर्म गरीबी ही है और जिस भी धर्म में उसे दो-चार लोग ऐसे मिल जाये जो उसे यह आस्वासन दे सकें की उसकी ग़रीबी अभिशाप नहीं और सहारे की कुछ गुंजाईश, बस वही धर्म ..नाम जनाब आप जो भी दे दें "हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, पारसी" ..

धर्म बड़ा नहीं है, बड़ा है वह अस्वासन जो उसके साथ आया..

हमने भी अपने मन में एक पुण्यकर्म की गिनती बड़ाई और अपनी इस मित्र के साथ उसके घर-परिवार- नौकरी वगैरह की बातों के साथ मुलाक़ात की रस्म अदायगी की और रिमझिम बरसात के लुत्फ़ लेते हुए अपने यथास्थान की तरफ रवाना हुए ||






Wednesday, April 9, 2014

रोज़




हर रोज़ ज़िन्दगी कम हो  जाती, हर रोज़ हम कुछ बढ़ जाते है 
हर रोज़ कि यह बेखुदी , हर रोज़ के यह बेतरतीब अफ़साने 
हर रोज़ नया और किस्से पुराने
हर रोज़ कश्मकश, और रोज़ के बहाने
ज़िन्दगी चलती भी नहीं और थमती ही कहाँ 
बस ये रोज़ की रवायत और रोज़ ही आजमाइश ॥ 

Tuesday, June 25, 2013

ख्याल

तेरी ज़िन्दगी और तेरे ख्याल में इतना ही फासला है
इक में मेरा वज़ूद फ़ना, दूजे में कायम है

ज़िन्दगी की रफ़्तार की ही ऐसी है और भागते जाने तुम्हारी फितरत
तुम रुको कभी कि हम भी तुम्हें छू के महसूस कर ले
और तुम्हारे फलसफात का जो एक दायरा सा है, उसमें इक चक्कर लगाये
बांधे कुछ धागे फिर गोलाई में, और रोक ले तुमको बहने से
तुम्हारी कशिश की इक परछाई शायद रूबरू हो जाये
और तुम फिर चहचहा पड़ो परिंदों की मानिंद
और कुछ आवाज़ सी गूंजे तन्हाई के वीरानो में
सुराही से डलते पानी की मानिंद
रूखे पत्तों पे पड़ते कदमों की सरसराहट
और ख्वाबों के डेर पे ज़मी धूल उड़ सी जाये
वो रौनके ख़यालात शायद फिर दहलीज़ पे लौटे
और कौन जाने फिर से कुछ मिसरे से बन जाये

पर तुम जो हो कि अफ्सानो का पुलिंदा
दर्मिया तुम्हारे कितने लफ़्ज संवर जाते है
बस एहसास ही नहीं होता तुम्हारे तस्सवुर का
बाकि तुम्हारे नाज़े - नखरों की बुलंदी मेरे ख्यालों तक कायम है

सुबह उठ के दावे पाँव चलना कि कोई खटपटी आवाज़ न हो
और पर्दों से छनती धूप पे तौलिये डालना कि कही आँख न खुले
दरख्तों पे बैठी चिड़िया से गुज़ारिश की धीमे गुनगुना
बस दर है किसी रोज़ यूँ ही आवाज़ों की रुकावट करते धड़कन न रोक दे हम
और तुम जो हमेशा ख्यालों में रही मुक्कम्मल सी मेरे सामने आ जाओ
बस यूँ ही कुछ वक़्त मेरे चाँद शेर सुनो और थोड़ी सी दाद दे जाओ
और बाकि ज़िन्दगी के मायने में ज्यादा रखा ही क्या है
कभी तुम दूर रहो कभी करीब आ जाओ
पैर वोह जो तुम्हारी शख्शियत का इक पैमाना है
कि जिस गूंचे गुलशन से गुज़रो सारा ज़माना महक जाये

पर तुम भी हो कि आज तक ख्याल हो, कभी तस्वीर ही बन के रूबरू तो आओ ...

Thursday, October 25, 2012

हर रोज़

हर रोज़ एक नयी शाम मेरी दहलीज़ पे खड़ी हो जाती है , हर रोज़ हम उससे नज़रे चुराते है
हर रोज़ एक चाय की चुस्की दबे पाँव हंस जाती है , हर रोज़ हम उसे कुछ नयी कहानी सुनाते है
हर रोज़ का है यह किस्सा हर रोज़ दोहराया जाता है , हर रोज़ कुछ बुत बनते है कुछ मुज़स्में उजड़ जाते है
हर रोज़ ज़िन्दगी कुछ आगे बाद जाती है, हर रोज़ हम कुछ कदम बिछड़ जाते है
हर रोज़ ..हर रोज़ कितने नए वाक्यात बनते है कितने पुराने हो जाते है !!

Tuesday, October 18, 2011

भरम..

कभी - कभी पास से ज़िन्दगी यूँ गुज़र जाती है, कि खामोश रातों में भी आवज़ नहीं आती है
जान के अनजाने होने का भरम भी बेमानी है, दिल बिखरता है पर चेहरे पे सिकन नहीं आती है |
आज के दौर के ढंग भी बेतरतीब से है, तबस्सुम छलका के भी आँखों में कितना पानी है
रूह पे दर्द के निशान कहाँ दिखते है कभी, यह कभी तेरी कभी मेरी रुसवाई है ||

मौसम की रुबाइयाँ कब हर किसी को रास आई है, शाम जाती है पर सुबह कहाँ आई है
रोज़ गली के मुहाने पे उम्मीद मिलती है मुझसे यूँ , जैसे सर्द दुपहरी में धूप मिलने आई है |
आज फिर खुद में तेरा अक्स देखा मैंने, जाने इम्तिहान की कौन सी घड़ी आई है
भूलना मुश्किल है पर क्यूँकर तुझे याद करूँ, तेरी राह मेरी मंजिल के करीब से कब गुज़र पाई है ||