Wednesday, July 30, 2014

वाक्या - भाग १

तो पिछली दफे कब आपकी  मुलाक़ात हुई और कहाँ..मुझे इत्तेफाक से यह तब मिली जब अपनी प्यारी सी मुस्कराहट सजाये हम हैदराबाद में अपनी एक पूर्व सहपाठी से बरसों बाद मिलने का इंतज़ार कर रहे थे, हमारे हाँथो में आलू-टिक्की की वह प्लास्टिक प्लेट आने से पहले, सड़क के किनारे भटकते एक भूखे बच्चे की आस में कि शायद कोई दरियादिल उसे भी चटकारे भरी यह चाट खिला दे..ऐसा नहीं की वह भिखारी था या कोई कामचोर, पर शायद कचरा बेच कर कमाए पैसे से चाट खाने की फिजूलखर्ची, उसके बस से बहार थी..और फिर मेरा और मेरी दोस्त का उसे और उसके एक और सहयोगी को चाट की दो प्लेट खरीद कर देना मनो ऐसा था जैसे उनकी कोई मुराद पूरी हो गयी हो .. नाम नहीं मालूम हमें उन बच्चों का न ही कुछ और, पर एक ही ख्याल है मन में की "क्या ग़रीब का भी कोई धर्म होता है ? " शायद नहीं उसका धर्म गरीबी ही है और जिस भी धर्म में उसे दो-चार लोग ऐसे मिल जाये जो उसे यह आस्वासन दे सकें की उसकी ग़रीबी अभिशाप नहीं और सहारे की कुछ गुंजाईश, बस वही धर्म ..नाम जनाब आप जो भी दे दें "हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, पारसी" ..

धर्म बड़ा नहीं है, बड़ा है वह अस्वासन जो उसके साथ आया..

हमने भी अपने मन में एक पुण्यकर्म की गिनती बड़ाई और अपनी इस मित्र के साथ उसके घर-परिवार- नौकरी वगैरह की बातों के साथ मुलाक़ात की रस्म अदायगी की और रिमझिम बरसात के लुत्फ़ लेते हुए अपने यथास्थान की तरफ रवाना हुए ||






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