Thursday, July 14, 2011

खाख के बाशिंदे

कुछ नूर है फिर बरसा; कुछ आँख हुई झिलमिल,शबनम के कतरों को मोती सा सजना है |

फिर लौ है कुछ मद्धम; फिर बिखरा है आज यह मन,रूठे हुए सपनो को फिर आज मनाना है |

उड़ते परिंदों की तान है बोझिल सी, आकाश से बरसा अमृत फिर धूल में मिल जाना है |

हम खाख के बाशिंदे है; क्या नाता रौशनी से, चिंगारी से उबरना है; धुएं में डूब जाना है |

दुनिया की नसीहतों में दस्तूर पुराना है; ठहरे हुए रस्तों पे बढ के आगे जाना है |

शबनम के कतरों को मोती सा सजना है |