हर रोज़ ज़िन्दगी कम हो जाती, हर रोज़ हम कुछ बढ़ जाते है
हर रोज़ कि यह बेखुदी , हर रोज़ के यह बेतरतीब अफ़साने
हर रोज़ नया और किस्से पुराने
हर रोज़ कश्मकश, और रोज़ के बहाने
ज़िन्दगी चलती भी नहीं और थमती ही कहाँ
बस ये रोज़ की रवायत और रोज़ ही आजमाइश ॥