Thursday, October 25, 2012

हर रोज़

हर रोज़ एक नयी शाम मेरी दहलीज़ पे खड़ी हो जाती है , हर रोज़ हम उससे नज़रे चुराते है
हर रोज़ एक चाय की चुस्की दबे पाँव हंस जाती है , हर रोज़ हम उसे कुछ नयी कहानी सुनाते है
हर रोज़ का है यह किस्सा हर रोज़ दोहराया जाता है , हर रोज़ कुछ बुत बनते है कुछ मुज़स्में उजड़ जाते है
हर रोज़ ज़िन्दगी कुछ आगे बाद जाती है, हर रोज़ हम कुछ कदम बिछड़ जाते है
हर रोज़ ..हर रोज़ कितने नए वाक्यात बनते है कितने पुराने हो जाते है !!