Tuesday, October 18, 2011

भरम..

कभी - कभी पास से ज़िन्दगी यूँ गुज़र जाती है, कि खामोश रातों में भी आवज़ नहीं आती है
जान के अनजाने होने का भरम भी बेमानी है, दिल बिखरता है पर चेहरे पे सिकन नहीं आती है |
आज के दौर के ढंग भी बेतरतीब से है, तबस्सुम छलका के भी आँखों में कितना पानी है
रूह पे दर्द के निशान कहाँ दिखते है कभी, यह कभी तेरी कभी मेरी रुसवाई है ||

मौसम की रुबाइयाँ कब हर किसी को रास आई है, शाम जाती है पर सुबह कहाँ आई है
रोज़ गली के मुहाने पे उम्मीद मिलती है मुझसे यूँ , जैसे सर्द दुपहरी में धूप मिलने आई है |
आज फिर खुद में तेरा अक्स देखा मैंने, जाने इम्तिहान की कौन सी घड़ी आई है
भूलना मुश्किल है पर क्यूँकर तुझे याद करूँ, तेरी राह मेरी मंजिल के करीब से कब गुज़र पाई है ||

Saturday, October 1, 2011

कशमकश ..

कब तलक टूटे तारों में दुआएं बसेंगी
इक रोज़ वो दिन भी आयेगा, जब दवा असर करेगी
आँख मूँद के रिवाजों की सरपरस्ती भी कारगर है कभी
नए आगाज़ को क्यूँकर तवज्जो  देनी ही पड़ेगी ||

जो सर्द हवा का मौसम आया है शहर में
गलियों की नुमाइश अब खिड़की से दिखेगी
बंद दरवाज़ों पे अँधेरा इत्मीनान से बैठा है आजकल
रौशनी भी कहाँ कम है अब झरोखों से छनेगी ||

शाम की महफ़िले तक़रीर में बदलती सी दिखी
गोया चांदनी चरागों से कम पड़ने लगी
यूँ तो सूरज भी छुपा करता है बादलों में कभी
फिर भी धूप की तासीर बदली है कहीं ||

Thursday, July 14, 2011

खाख के बाशिंदे

कुछ नूर है फिर बरसा; कुछ आँख हुई झिलमिल,शबनम के कतरों को मोती सा सजना है |

फिर लौ है कुछ मद्धम; फिर बिखरा है आज यह मन,रूठे हुए सपनो को फिर आज मनाना है |

उड़ते परिंदों की तान है बोझिल सी, आकाश से बरसा अमृत फिर धूल में मिल जाना है |

हम खाख के बाशिंदे है; क्या नाता रौशनी से, चिंगारी से उबरना है; धुएं में डूब जाना है |

दुनिया की नसीहतों में दस्तूर पुराना है; ठहरे हुए रस्तों पे बढ के आगे जाना है |

शबनम के कतरों को मोती सा सजना है |