Saturday, October 1, 2011

कशमकश ..

कब तलक टूटे तारों में दुआएं बसेंगी
इक रोज़ वो दिन भी आयेगा, जब दवा असर करेगी
आँख मूँद के रिवाजों की सरपरस्ती भी कारगर है कभी
नए आगाज़ को क्यूँकर तवज्जो  देनी ही पड़ेगी ||

जो सर्द हवा का मौसम आया है शहर में
गलियों की नुमाइश अब खिड़की से दिखेगी
बंद दरवाज़ों पे अँधेरा इत्मीनान से बैठा है आजकल
रौशनी भी कहाँ कम है अब झरोखों से छनेगी ||

शाम की महफ़िले तक़रीर में बदलती सी दिखी
गोया चांदनी चरागों से कम पड़ने लगी
यूँ तो सूरज भी छुपा करता है बादलों में कभी
फिर भी धूप की तासीर बदली है कहीं ||

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